Homeगुजरातमैं माला,कंठी बांधने या बैरखा देने नहि निकला हुं।।

मैं माला,कंठी बांधने या बैरखा देने नहि निकला हुं।।

मुजे किसी की जरुरतनहि,ये मेरा अहंकार मतसमजना: मोरारिबापु

मेरे दादा की पादूका,दादा ने दी हूइ पोथी और दादा की पघडी-ये तीन ही मेरे लिये पर्याप्त है:मोरारिबापु।।

सत्य और असत्य का विवेक तप है।।

प्रत्येक इंद्रिय पर विवेक से संयम तप है।।

जगत के तमाम द्वंदों को मुस्कुरा के सहन कर लेना तप है।।

समय पर मौन रहना तप है।

वाद नहीं लेकिन विवाद ना करना भी तप है।।अपमान सहन करना तप है।।

परमात्मा का विस्मरण नहीं करने का दृढ़ संकल्प तप है।। 

इन्डोनेशिया की योग्यकर्ता भूमि से बह रही रामकथा के चौथे दिन कथा आरंभ पर बापु ने एक महत्वकी स्पष्टता और अपने विवेक विनय की बात कही।

बापुने बताया कि किसी ने पूछा है बापू! आप बेरखा देते हैं,पादुका मांगे तो आप देते हैं, रुद्राक्ष की माला देते हैं तो आपका दृष्टिकोण स्पष्ट कीजिए।। आपकी मानसिकता बताइए,क्योंकि आपका स्वभाव तो कुछ अलग है।।

बापू ने कहा कि मेरे पास कोई पादुका मांगे। मैंने पादुका की बहुत महिमा गाई है, गाई नहीं समझी है। बेरखा मांगे,रुद्राक्ष की माला मांगे और तलगाजरडा आते हैं तो मैं देता हूं।।लेकिन यह व्यक्ति पूजा के संदर्भ में ना समझे।।

 शंकराचार्य कहते हैं: कोई राजा की उपस्थिति मात्र से सभी क्रियाकलाप चलता है।। परिवार में किसी एक व्यक्ति की उपस्थिति ही पर्याप्त है।। पादुका मेरे त्रिभुवन दादा की है।।बेरखा मेरे दादा को ध्यान में रख कर देता हूं।।आपकीभ्रांति टूटनी चाहिए।। पादुका मेरी मत समझना,मेरे त्रिभुवन दादा की है।। मेरे हाथों से दी जा रही है। मैं प्रतिनिधि के रूप में छूता हूं।। बेरखा मांगते हो वह भी मेरे दादा का है। रुद्राक्ष की माला विष्णु देवानंद गिरि जी की प्रसादी है।।कोइशॉल मांगे मेरी दादी को ध्यान में रखकर देता हुं।।मगर मैं माला,कंठी बांधने या बैरखा देने नहि निकला हुं।।मुजे किसी की जरुरतनहि,ये मेरा अहंकार मतसमजना।।

जैसे श्रीनाथजी का प्रसाद मुखिया जी बांटते हैं। द्वारकाधीश का प्रसाद गूगली ब्राह्मण के हाथों से दिया जाता है।। बेरखा माला कंठी डालने नहीं निकला हूं।।मेरी प्रकृति से बहुत दूर की बात है।

बापू ने यह भी कहा कि यहां भी बांटना बंद करो कोई तलगाजरडा आकर मांगे तो जरूर दीजिए।। क्योंकि गलत परंपरा शुरू होगी।। मेरे आस-पास कोई नहीं है।।हमारा यह मिशन भी नहीं मेरा स्वभाव ही नहीं है।।जो भी देते हैं बंद करें।।बापू ने कहा मुझे किसी की जरूरत नहीं।यह मेरा अहंकार नहीं है।। तीन की ही मुझे जरूरत है:मेरे दादा की पघड़ी, मेरे दादा की पोथी और मेरे दादा की पादुका।।

 आज बापू ने बताया शास्त्रों में दस प्रकार के तप है ऐसी बातें सहन करना भी तप है।।शास्त्रों और अनुभव के आधार पर तप के बारे में बापू ने कहा कि सृष्टि दो चीजों पर टकी है:तप और रूत।। तप आधार है और ञूत व्यवस्था है।। प्रत्येक देवता के तीन रूप है: आधि भौतिक, आधि दैविक, आध्यात्मिक।।वरुण जल के रूप में भौतिक है। वरुण देव भी है और किसी का नाम लेकर आंख में आंसू आए वह आध्यात्मिक रूप है।। अग्नि के भी तीन,अग्नि की ज्वाला भौतिक रूप है। अग्नि देव है और प्रेम अग्नि विरह अग्नि ज्ञान की अग्नि ये आध्यात्मिक रूप है।।पृथ्वी हमारी माता है।।पृथ्वी भौतिक है। माता के रूप में देव है।।सीता की भी मॉं है और पृथ्वी सहन करती है धीरज है वह आध्यात्मिक रूप है।।

 पद प्रक्षालन में भी व्यक्ति पूजा का डर होता है। कभी पाखंड शुरू होते हैं तुलसी जी कहते हैं कि कलयुग में बहुत पंथ और प्रपंच चलेंगे। मुझे वहां से दूर ले जाना है। क्योंकि कलयुग में अलग-अलग लोग अपने नाम से गलत परंपरा और फिर पंथ शुरू करेंगे यह तुलसी का कहना है।।

 महापुरुष का पद प्रक्षालन परंपरा है लेकिन  गलत प्रवाह न चले।। भागवत में महदपादौरज का अभिषेक बताया है।।

 अपनी कोई कुलदेवी कुल देवता का पता ना हो तो कृष्ण कुलदेव है और रुक्मणी कुलदेवी समझना चाहिए।।

सत्य और असत्य का विवेक तप है।। प्रत्येक इंद्रिय पर विवेक से संयम तप है।। जगत के तमाम द्वंदों को मुस्कुरा के सहन कर लेना तप है।। समय पर मौन रहना तप है। वाद नहीं लेकिन विवाद ना करना भी तप है।।अपमान सहन करना तप है।। परमात्मा का विस्मरण नहीं करने का दृढ़ संकल्प तप है।। सत्य और रुत से रात्रि और फिर समुद्र प्रकट हुआ और रत्न निकले वह बात भी करेंगे।।

 लेकिन भगवती मां देवी की १६ ऊर्जा: क्षमा, कृपा, कीर्ति,श्री-वैभव, वाक्, ऐश्वर्य,स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा, वरदा,सुभदा आदि उनकी शक्ति है, ऊर्जा है। याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज को राम कथा से पहले शिव चरित्र का आरंभ किया।।

 और शिव और पार्वती उसी त्रेता युग में राम की लीला चल रही है,वहां से निकलते हैं और राम सीता को खोजते हैं, रुदन करते हैं।।सती को संशय होता है।।परीक्षा के लिए जाती है परीक्षा में नापास होती है और शिव प्रतिज्ञा करते हैं। बाद में सती का प्राण त्याग होता है। वह संवादी कथा का गायन हुआ।।

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