रामदूत का मतलब है सत्य प्रेम और करुणा की छांया में जीना।।
बुद्धपुरुष किसी आश्रित के लक्षण नहीं देखते,जैसा है वैसा स्विकार कर लेते है।।
मुझे पोथी का अर्थ ही कृपा लगता है।।
कृष्ण की सोलह कला कौन सी है।
राममय,शिवमय,बुद्धमयीइंडोनेशिया की भूमि से प्रवाहित रामकथा में आज श्रावणी पूर्णिमा,बळेव, रक्षाबंधन का दिन।रामकथा का तीसरा दिन और रक्षाबंधन की सभी को बधाई देते हुए बापू ने कथा का आरंभ किया।।कहा कि इंडोनेशिया में भारत की ओर से राजदूत के रूप में आदरणीय चक्रवर्ती जी आए हैं।।राजपीठ ने व्यास पीठ को आदर और सम्मान दिया,बापू ने धन्यवाद प्रकट किया।।
बापू ने बताया कि राजदूत रामदूत बनकर रहे तो कहीं भी सफल होते हैं।। रामदूत का मतलब है सत्य प्रेम और करुणा की छांया में जीना।।रामचरितमानस में अंगद राजदूत है।राम कार्य के लिए सदा रहे और सफल रहा है। अंगद को राम ने कहा हमारा कार्य भी हो और विश्व का कल्याण हो ऐसी भावना लेकर रावण के दरबार में जाओ।। कहीं वैर भाव से और कई लोग प्रेम भाव से भारत को भजते हैं।।
बापू ने बताया हमारे पास शरीर है तो शरीर कुछ ना कुछ काम करवाये गा ही। लाख चाहे हम निष्क्रिय नहीं रख सकते।। बिना कर्म एक क्षण नहीं रह पाएंगे।। शरीर काम करवाता है। मन किसी न किसी को मानने के लिए उत्सुक रहता है और बुद्धि है तो कुछ ना कुछ जानने की इच्छा रहती है।। राम संदेश देते हैं अंगद को, ऐसा काम करो रावण का हित हो मेरा अवतार कार्य पूर्ण हो, हमारा काम बने।।अंगद सत्ता के पास संधि करने जाता है और हनुमान जी सीता के पास जाते हैं।।
आज कुछ जिज्ञासा आई थी। बुद्धपुरुष को समर्पित आश्रित के लक्षण कैसे होने चाहिए हम किसी बुद्ध पुरुष के आश्रित होना चाहे तो हम कैसे निर्णय करें बापू ने कहा बुद्धपुरुष किसी आश्रित के लक्षण नहीं देखते, जैसा है वैसा स्विकार कर लेता है।।अपने गुन के कारण नहीं लेकिन हमारे बुद्धपुरुष के औदार्य के कारण हम स्वीकृत होते हैं।।एक ही वस्तु नितांत आवश्यक हैदृढ़ भरोसा।। यदि वह हमारे लक्षण देखे तो हम कभी पास नहीं हो पाएंगे! गंगा हमारे लक्षणों को नहीं देखती,जो भी नहाता है पवित्र होकर निकलता है।।
बापू ने यह भी बताया जितने भी बुद्धपुरुष हुए अंतिम १० साल बहुत मुश्किल से गुजरे हैं। अपवाद हो सकते हैं।।लेकिन गांधी को देखो! कोई बुद्धपुरुष,भगवान बुद्ध को देखो! आखरी १० साल दुखी हुए या तो दुखी किए गए।। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस,महर्षि रमण,मीराबाई यह सब हमारे सामने है।।
बापू ने यह भी कहा कि कभी मां अपने बच्चों को चलना सिखाती है तो बच्चे की उंगली पकड़कर उलटी चलती है।। बच्चा सीधा चलना सीखें, वैसे समाज को चलना सिखाने के लिए बुद्धपुरुष उलटी चाल चलते हैं।।क्या भवानी को कभी संदेह हो सकता हैआप कल्पना भी नहीं कर सकते।। लेकिन हमारे लिए संशय किए हैं।।बुद्धपुरुष के अभिषेक के द्रव्य क्या है
अभिषेक शब्द आता है तो महादेव ही केंद्र में दिखते हैं।राम या कृष्ण का अभिषेक भी रुद्राभिषेक ही है। बुद्धपुरुष का अभिषेक रुद्राभिषेकहै।।समुद्र का अभिषेक,हमारे मानस हृदय का अभिषेक या तो भवानी का अभिषेक भी रुद्राभिषेक है।।
रुद्र शब्द रामचरितमानस में केवल आठ ही बार आया है। यह मानस की अष्टाध्यायि है।। मूल में सभी रुद्राभिषेक है। मानस में राम भी रूद्र है। गरुड़ कहते हैं सत कोटी रुद्र से भी ज्यादा है।।
यहां यह देश की सभ्यता ब्रह्मा,विष्णु,महेश को मानते हैं लेकिन नाम बदले हैं बर्थ,लाइफ और डेथ कहते हैं।।
मानस हमारे जैसे अनपढ़ों के लिए सरल है और पंडितों को मुश्किल है,और उसी तरह भागवत,वेद, गीता आदि ग्रंथ पंडितों के लिए सरल है हमारे जैसों के लिए कठिन है!
बापू ने कहा कि माया का अर्थ संस्कृत का अमरकोश,जो संस्कृत के अर्थों से समृद्ध है वहां कई अर्थ दिखाई है।माया का अर्थ पर्दा,छल,प्रपंच, नेटवर्क,चालाकी,छलना यह सभी है।लेकिन एक अर्थ यह भी हैकृपा।।परमात्मा की माया के वश पूरा जगत है इसका मतलब यह उनकी कृपा से हम वश है क्योंकि हमारा बाप कभी कठोर नहीं हो सकता। माया सीता रावण पर कृपा करने गई थी। परमात्मा भी कृपा माया का आश्रय करता है,श्रीमद् भागवत उसे योगमाया कहता है।।
बापू ने कहा मुझे पोथी का अर्थ ही कृपा लगता है।। रामचरितमानसप्रेमयज्ञ है और यज्ञ में विश्वास होना चाहिए,भोजन करवाना चाहिए, मंत्र होना चाहिए, दक्षिणा और श्रद्धा होनी चाहिए जो सब कुछ हम करते हैं।।
गीता में कृष्ण कहते हैं रूद्र में शंकर में हूं। शालिग्राम भी रुद्ध है, दुर्गा भी रूद्र है मृडानी रुद्राणी… ऐसा शंकराचार्य कहते हैं।। और गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवोमहेश्वर… तो गुरु भी रूद्र है।। समुद्र भी रूद्रहै।कभी रौद्र स्वरूप भी दिखाता है। तो केंद्र में हम रुद्राभिषेक ही कर रहे हैं हमने नाम समुद्र अभिषेक दिया है।।
तर्पण और अभिषेक में अंतर है। तर्पण क्रियाकांड है और अभिषेक एक बिलग वस्तु है।।
रामचरितमानस एक ऐसा त्रिभुवनिय ग्रंथ है जो हमारे जैसे अनपढ़ों के लिए सरल पड़ता है।।
कल शिव के १६ रस और राम के १६ शील की हमने बात क।। भगवान कृष्ण में १६ कला है।।
यद्यपि इनमें यह है इसलिए अभिषेक करें यह भाव भी नहीं लेकिन कौन सी कला है यह हम पहचाने इसलिए बोलते हैं।। कृष्ण मथुरा गए, कुब्जात्रिभंगी के घर बुलाते हैं और कुब्जाने सभी सामग्री कृष्ण को अर्पण कर दी। एक कुब्जा का ये कृष्ण को अभिषेक है।। हम चोबीस घंटे में से कभी भी किसी का अमंगल ना सोचे यह हमारा अभिषेक है। हमारे नेत्र बिगड़े नहीं वह नेत्राभिषेक है और हमारे हाथ शुभ काम करें वह हस्ताभिषेक है। शुभ काम करने के लिए हमारे पैर गति करें वह पदाभिषेक है।।
सब रूद्रमयहैअग्नि,सूर्य,चंद्र,नक्षत्र,दिशाएं,आकाश पहाड़, सब रूद्र है।।
कृष्ण में १६ कला है
एक- नर्तन कला। नृत्य कृष्ण जैसा किसी ने नहीं किया।।गोपियों के बीच भी नृत्य किया और काली नाग के ऊपर भी कृष्ण ने नृत्य किया है।।
दो-वादन कला कृष्ण मुरली भी बजाता है और शंख भी बजाता है।।
तीन-गायन कला कृष्ण एकमात्र गीत ऐसा गाया श्रीमद् भगवत गीता गाई,७०० श्लोक में परम गीत का गान सदियों तक गूंजता रहेगा,और कुछ गाने की जरूरत नहीं रही।।
चार-केश कलाघुंघराले बाल कृष्ण की केश कला है पांच-वाक् कला कृष्ण बोलते तो हिमालय की कंदरा से साधना करते योगी और तपस्वी दौड़ आते थे।। छे-असंग कला सबके बीच में रहते हुए असंग रहें।। गोपियों,गायों, राजसभा में असंग रहे। ब्रज में वृंदावन में असंग रहे। मथुरा छोड़ा, धण छोड़ा,रण छोड़ा,गण भी छोड़ दिया और युद्ध में प्रण भी छोड़ दिया! सबके बीच रहकर असंग रहना परमात्मा की कला है।।
सात- प्रेम कला प्रेम करना कृष्ण से सीखे।।
आठ-कामकला काम भी कला है।। चैतन्य परंपरा के जितने आचार्य हुए।वहां कृष्ण की क्रीड़ा का वर्णन किया वह स्वस्थ चीत है तब ही पढ़ना, रुग्ण से नहीं पढना। गोपीगीत के कुछ वर्णन स्वस्थ चित् से ही पढ़ने चाहिए क्योंकि वहां काम कला के बारे में ऊंचाई के रूप में दिखाया गया है।।
नव-राज कला कृष्ण में राजनीति की अद्भुत कला है।दस- युद्ध कलागजब की कला है कब कहां ठहरना और कहां चलना वो कृष्ण जानता है।।
ग्यारह-सुदर्शन चक्र की कला।।बारह-सारथी कला कृष्ण का सारथीपना अद्भुत है। महाभारत के घमासान युद्ध के बीच में भी अपने सामर्थ्य से अपने घोड़े को भी एक तीर भी नहीं लगने दिया।।
तेरह- सेवा कला सेवा भी कला है। कृष्ण ने पातल भी उठाए हैं और राधिका के पैर भी दबाये हैं।।
चौदह-रंग कला अवतारों में सबसे ज्यादा होली कृष्ण ने खोली है।येकृष्ण की रंग कला है।।
पंद्रह-कर्म कुशलता और विवेक कला।।
और सोलह-शांत कलासब कुछ करने के बाद चुप हो जाता है।। शांत रहना भी कला है। इसीलिए कृष्ण का अभिषेक करना चाहिए।।
सात समंदर को बताते हुए बापू ने कहा छबी समुद्र, सुधा समुद्र,आनंद समुद्र,श्रवण समुद्र,शोक समुद्र आदि की बात हम आगे के दिनों में करेंगे।।
बालकांड की कथा के क्रम में नाम वंदना, नाम महिमा के गान के बाद रामचरितमानस की सनातनी परंपरा बताइ।। पहले अनादि कवि शिवजी ने रामचरितमानस की रचना की और अपने मानस में रखा और बाद में आदि कवि वाल्मीकि जी ने भी रचना की।। शिव जी ने समय मिलने पर पार्वती को यह कथा सुनाई।। फिर काग भूशुंडीजी ने सुनी और भूशुंडि जी ने गरुड़ को सुनाइ। और फिर याज्ञवल्क्य को मिली। फिर भारद्वाज जी को सुनाई गई।। प्रवाही पवित्र परंपरा चली।वराह क्षेत्र में तुलसी जी के गुरु नरहरि महाराज ने तुलसी जी को बार-बार राम कथा सुनाई।। बाद में तुलसी जी ने भाषाबध्ध की और संवत १६३१ में रामनवमी के दिन कलयुग में अयोध्या में प्रकाशन हुआ।। त्रेता युग में भगवान राम के प्राकट्य दिन रामनवमी पर जो जोग लगन ग्रह बार और तिथि थे वही कलयुग में रामनवमी पर योग बने।।और इस रामनवमी पर
नवमी भोमबारमधुमासा।
अवधपुरी यह चरित प्रकासा।।
अयोध्या में रामचरितमानस का प्रकाशन हुआ। मानस का मतलब हृदय मन मनुष्य मानसरोवर ऐसा होता है। तुलसी का यह जंगम मानसरोवर है।। चार घाट बताये ज्ञान घाट,भक्ति उपासना का घाट,कर्म घाट और शरणागति का घाट। जो गौ घाट है जहां सिड़ियांनहीं।प्रयाग के घाट पर भारद्वाज ने राम के बारे में संशय किया वह भी हमारे लिए परमार्थ का काम है। क्योंकि ऐसे महापुरुष को संशय नहीं होता और याज्ञवल्क्य से राम के बारे में पूछा और राम कथा का आरंभ होने वाला है।।।