एक कवच बनता है।।
सद्गुरु हमारा अभेद कवच है।।
साधु का कोई धर्म नहीं होता साधु स्वयं धर्म है।।
उसकी निष्ठा परिपक्व होती है जिसे प्रतिष्ठा की नहीं पडी़ होती।
मार्वेलसमार्वेला-स्पेन की भूमि से प्रवाहित रामकथा के छठ्ठे दिन बापू ने देवी भागवत में प्रकृति पंचदा वह श्लोक समझाया।।
कोई व्यक्ति अपने बुद्ध पुरुष के चरण में समर्पित हो गया उस पर कोई मंत्र-तंत्र,जादू-टोना,वशीकरण हो सकता है कि नहीं? बापू ने कहा कि इस विद्या का कुछ प्रभाव तो है।। लेकिन पूर्णतया समर्पित आश्रित को कुछ नहीं कर सकता।।हमारी अवस्था पर और हमारा मानसिक संतुलन बिगाड़ सकता है। हमें डामाडोल भी कर सकता है।। इंद्र आदि देवताओं ने मैली विद्या का प्रयोग अयोध्या वासी पर करने की बात करी। सरस्वती को भी कहा कि भरत की मति को घुमा दो।।तब सरस्वती ने इंद्र को डांटते हुए कहा कि आप हजार आंख वाले हैं फिर भी आपको मेरु नहीं दिखता! रामायण के पात्रों की माला में भरत मेरुहै।।सरस्वती सब की बुद्धि घुमा देती है लेकिन रामचरितमानस में एक बार सरस्वती की बुद्धि भी घूम जाती है।। हमारी स्थिति हरि नाम से ऊपर उठने से जनकपना आ जाए तो देव माया स्पर्श नहीं कर सकती।।जो पूर्णतः आश्रित है वहां मैली विद्या की असर नहीं होती।एक कवच बनता है सद्गुरु हमारा अभेद कवच है।।साधु का कोई धर्म नहीं होता साधु स्वयं धर्म है।। परिचय के लिए हम कहते हैं बौध साधु। जैन साधु,सनातन साधु।। लेकिन जन्म भी दिव्य कर्म भी दिव्य और स्वभाव भी दिव्य है वह साधु है।।
बापू ने कहा कि रिषी की वाणी और मुनियों का मौन है वह साधु है।।गीता जी में एक शब्द है मौनी। मौनी महापुरुष के अनुभव में क्या-क्या होता है वह धीरे-धीरे मंत्र दृष्ट हो जाता है। मंत्र के देवता दिखने लगते हैं।। वह सूत्रदाता हो जाता है। मौन उम्र बढ़ाता है।।मौन से वर्ण बदलता है और शास्त्र अपने आप मौनी के सामने अर्थ खोलना लगते हैं।। मन को शांत करने प्राण के स्पंदनों को धीरे-धीरे शांत करने का उपाय भी बताया गया है।।
गुजराती कवि शोभित देसाइ की गज़ल का शेर:
बधांस्वादो मां घूम्योछुं।
हवेमोळुं ज फावेछे।
बधारंगोनोछूट्यो मोह।
हवेबधुंधोळुं ज फावेछे।।
काग भूसुंडी ने हमें सिखाया*
एक सूलमोहिबिसरनकाउ।
गुरु कर कोमल सील सुभाउ।।
मैं एक पीड़ा बिसार नहीं पाता हूं। महाकाल के मंदिर में मेरे गुरु आए।वह हरी और हर में प्रीति रखने वाले थे। मैं केवल शिव उपासक था और मैने अपमान कर दिया। गुरु के सामने झूठ बोलना आज्ञा का पालन न करना फिर भी गुरु इतने महान होते हैं कि हमें माफ कर देते हैं।।
भक्तिरसामृतसिंधु ग्रंथ में एक श्लोक है जो आचार्य के चरणों में प्रीति प्रेम कैसे प्रगट हो वो हमें बताता है:
आदौश्रध्धातत: साधु संगोथ भजन क्रियात।
ततोअनर्थनिवृत्ति: शार्ततो निष्ठा रूचिस्तत:। यथासक्तिततो भाव: तत: प्रेमाभ्युदच्यति।।
पहला कदम ज्ञान मार्ग में जाना है तो भी श्रद्धावान होना पड़ता है।। इससे दिमाग की उछल कूद बंद हो जाएगी।फिर साधु संग करना और बाद में भजन क्रिया करने से मन क्रम वचन की चालाकी छोड़कर भजन करने से अनर्थों की निवृत्ति होती है। अनर्थ खत्म होंगे फिर निष्ठा पक्की होगी। उसकी निष्ठा परिपक्व होती है जिसे प्रतिष्ठा की नहीं होती। बुद्ध पुरुष के चरणों में रुचि जगती है। फिर आसक्ति जगती है और आठवें स्थान पर भाव प्रकट होता है। तब आचार्य के चरण में प्रेम का अभ्युदय होता है।। प्रेम प्रगटता है।।
कथा प्रवाह में विश्वामित्र के साथ राम लक्ष्मण ताड़का को निर्वाण देते हैं। मरिच को दूर फेंकते हैं सुबाहु को भस्मकरते हैं और यज्ञ समाप्ति के बाद अहल्या का स्विकार करते हैं और जनकपुर में जाकर धनुष्य का भंग करने के बाद परशुराम के सामने भी राम कसौटी में से खरे उतरते हैं।।
कई दिनों तक जनकपुर में बारात रही आखिर में कन्या विदाई के बाद अयोध्या से विश्वामित्र ने भी विदाई ली और बालकांड का समापन हुआ।।
सीता को शक्ति को भक्ति को और शांति को पाने के लिए राम ने पांच कसौटी में से अपने को पार किया