आनंद प्राप्ति के लिए सबसे आवश्यक है सभी से उचित दूरी बनाए रखना।
माँ की गोद ‘आनंदा यूनिवर्सिटी’ का पहला स्थान है।
मुक्ति रूपी नारी का श्रृंगार है रामकथा।
नालंदा: नालंदा में चल रही “मानस नालंदा विश्वविद्यालय” की कथा के अंतिम चरण में आज शरणागत श्रोताओं ने अनुभव किया कि जैसे व्यासपीठ से अनवरत प्रेमवर्षा हो रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि त्रिभुवन की वाणी गंगा का शुभ, शीतल और पावन प्रवाह ‘प्रेम घाट’से बह रहा हो। कथा प्रारंभ करते हुए पूज्य मोरारी बापू ने कहा, “मैं यहाँ कथा-गान अवश्य करने आया हूँ, लेकिन उससे भी अधिक इस भूमि को प्रणाम करने और इसका अध्ययन करने आया हूँ।”
बापू ने नालंदा और आनंदा विश्वविद्यालयों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए कहा कि नालंदा शिक्षितों के लिए है, जबकि आनंदा अशिक्षितों, अबोधों और सीधे-सादे लोगों के लिए है। रामकथा ‘आनंदा यूनिवर्सिटी’ है। आनंद हर व्यक्ति का अधिकार है। आनंद हमारे स्वभाव और स्वरूप का भाग है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति का अपना आनंद होता है। पंचमहाभूतों का भी अलग-अलग आनंद होता है।
उन्होंने कहा कि “माँकीगोद‘आनंदायूनिवर्सिटी’कापहलास्थानहै।”यदिआपइसआनंदाविद्यालयमेंकुछसाथलेकरआएंगे, तो चूक जाएंगे, लेकिन यदि खाली होकर आएंगे, तो घटना घटेगी। जब यहाँ से अपने घर लौटें, तो इतना आनंद लेकर लौटें कि परिवार को भी लगे कि व्यक्ति में कोई परिवर्तन अवश्य आया है। रामकथा आपको श्रृंगारित करती है — इसमें ‘मेकअप’ भी है और ‘वेकअप’ भी। मुक्ति रूपी नारी का श्रृंगार है रामकथा।
नालंदा और आनंदा विश्वविद्यालयों का तुलना करते हुए बापू ने कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के नियम हैं — वहां द्वारपाल भी बिना जांच के प्रवेश नहीं देता, जबकि आनंदा में प्रवेश के लिए कोई नियम या बंदिश नहीं है।
नालंदा विश्वविद्यालय का स्वरूप बाह्य है, जबकि आनंदा विश्वविद्यालय का स्वरूप आंतरिक है। यह आंतरिक आनंद की बात है। विश्वविद्यालयों में कई विषय पढ़ाए जाते हैं, आनंदा में विषय नहीं, विश्वास सिखाया जाता है। विषय अनेक होते हैं, पर विश्वास तो केवल एक पर ही होता है।
बापू ने बताया कि “विश्वविद्यालयोंमेंभाष्यहोताहै, लेकिन यहां केवल भाव होता है। भाष्य एक ऐसी जाल है जिसे पकड़ना कठिन है, लेकिन भाव को अनुभव किया जा सकता है, आत्मसात किया जा सकता है।”
नालंदा और आनंदा विश्वविद्यालय की तुलना को आगे बढ़ाते हुए बापू ने कहा, “नालंदा संसाधनों से समृद्ध है, जबकि आनंदा साधना से समृद्ध है। वहां प्रमाणपत्र मिलते हैं, यहां प्रेमपत्र। वहां डिग्री है, यहां जिगरी। वहां कुलपति होता है, यहां ‘कुल गति’ है – पूर्ण गति और पूर्ण मुक्ति। नालंदा विश्वविद्यालय में निर्धारित पाठ्यक्रम होता है, जबकि आनंदा विश्वविद्यालय में ‘अध्यास क्रम’ है। नालंदा कर्मप्रधान है, और आनंदाकृपाप्रधान है।”
उन्होंने कहा, “जैसे भरवाड़ के भेड़-बकरियाँ अंततः अपनी ही चाल में वापस लौटती हैं, वैसे ही मनुष्य भी अपनी यात्रा पूरी कर अंततः अपने घर लौटता है। पतंजलि जिसे ‘प्रत्याहार’ कहते हैं, उसी प्रकार हमें भी अपने मूल की ओर लौट आना चाहिए।”
पूज्य बापू ने कथा के अंतिम दिवस पर अत्यंत गूढ़ और हृदयस्पर्शी सूत्रों का उद्घाटन किया। तुलसीदासजी द्वारा प्रयुक्त शब्द “एकबल”काविश्लेषणकरतेहुएबापूनेकहा, “यहां ‘एक बल’ का अर्थ है ‘तारूं बल’, अर्थात् राम का बल। आश्रित वही होता है जिसके पास अपनी कोई शक्ति नहीं होती – यही शरणागति का सर्वोच्च शिखर है, एक महान छलांग है।”
बापू ने कहा, “हम सब आशाओं की बेड़ियों में बंधे हैं। प्रत्येक को किसी न किसी से आशा है – और यही कारण है कि किसी को भी शांति प्राप्त नहीं होती।”
पूज्य बापू ने गीता के सिद्धांतों के आलोक में सांसारिक जीवन जीने वाले सामान्य जनों के लिए शांति प्राप्त करने के चार महत्वपूर्ण सूत्र प्रस्तुत किए। पहला, सभी प्रकार की आशाओं से मुक्त हो जाना चाहिए। जब तक मनुष्य किसी न किसी आशा से जुड़ा रहेगा, तब तक उसका चित्त स्थिर नहीं हो सकेगा। दूसरा, स्पृहाओं से भी मुक्त होना। बापू ने समझाया कि स्पृहा आशा का विकृत रूप है। मनुष्य के भीतर अनेक प्रकार की स्पृहाएं पनपती हैं — यही स्पृहा उसे हिंसा, अत्याचार और भ्रष्टाचार की ओर ले जाती है। ऐसे व्यक्ति दंभी, क्रोधी और घमंडी हो जाते हैं।
तीसरा, निर्ममता की स्थिति अपनानी चाहिए। सबके साथ रहते हुए भी किसी से ममता का भाव न रखें। अपने मूल स्वरूप के आनंद को पाने के लिए प्रत्येक से एक निश्चित दूरी आवश्यक है। जो व्यक्ति भजन करना चाहता है, उसे संबंधों में सीमित रहकर साधना करनी चाहिए। शांति प्राप्त करने का चौथा सूत्र है किसी भी बात का अहंकार नहीं होना चाहिए। चाहे वह साधना हो, सेवा हो, ज्ञान हो या कोई उपलब्धि, बापू ने कहा कि अहंकार ही अंतर्मन की शांति को भंग करता है।
परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के साधन बताते हुए बापू ने कहा कि जितना संभव हो एकांत में रहना चाहिए। एकाग्रता अच्छी बात है, लेकिन इसकी एक “प्राथमिकता”है।जहाँएकभीसमाप्तहोजाताहै, वही एकांत है। जहां ‘एक’ भी समाप्त हो जाए, वहीं एकांत शुरू होता है। एकांत बहुत ऊंचा स्थान है।
ईश्वर की कृपा एकांत में प्राप्त होती है। सांसारिक एकांत पारिवारिक प्रेम को आकर्षित करता है, आध्यात्मिक एकांत ईश्वरीय कृपा को आकर्षित करता है। कथा में भी यदि एकांत ढूंढ लिया जाए, तो वही साधना है, वही अनुष्ठान।
पूज्य बापू ने मानस के गुरुमुखी रहस्यों को उजागर करते हुए कहा कि रामचरितमानस में एक “प्रेमपंचक”निहितहै।पहलाहैप्रेम, दूसरा परम प्रेम, तीसरा तत्त्व प्रेम, चौथा केवल प्रेम, और पाँचवाँ, निष्केवल प्रेम। इसीलिए मैं अपनी कथा को “प्रेमयज्ञ” कहताहूँ, “ज्ञान यज्ञ”नहीं।
मानस में स्वयं भगवान शिव ने “प्रेम” शब्द का उच्चारण किया है। “हरिव्यापकसर्वत्रसमाना, प्रेम ते प्रकट होई मैं जाना।”
यह प्रेम वह भाव दशा है, जो बिना किसी स्थान परिवर्तन, समय परिवर्तन, भाषा परिवर्तन, वेशभूषा परिवर्तन, वर्ण या भाव परिवर्तन के स्वतः प्रकट हो जाती है। यही सच्चा प्रेम है।
दूसरा, परम प्रेम, वह होता है जो अंतःकरण को समाप्त कर देता है। “परमप्रेमपुरानदौंभाई, मन बुद्धि चित्त अहंकार बिसराई।”
तीसरा, तत्त्व प्रेम, केवल राम ही जानते हैं: “तत्त्वप्रेमकरममअरुतोरा, जानत प्रिया एकु मनु मोरा।”भगवानराम, हनुमानजी के माध्यम से सीताजी को यह संदेश भेजते हैं। यह स्थूल नहीं, सूक्ष्मतम प्रेम है। केवल मन ही तत्त्व प्रेम को जान सकता है, परंतु वह मन अपने साथ नहीं, बल्कि अपने प्रियतम के साथ होना चाहिए।
चौथा, केवल प्रेम है, जो भगवान राम को सबसे प्रिय है: “रामहीकेवलप्रेमपियारा, जानी लेहु जो जाननहारा।”
यहाँ पूज्य बापू एक अद्भुत सूत्र उद्घाटित करते हुए कहा कि “केवलज्ञानमुक्तिदेसकताहै, पर मस्ती तो केवल प्रेम ही दे सकता है।”
पाँचवाँ है निष्केवल प्रेम। जिस राम के पास ज्ञानी और मुनि भी नहीं पहुँच सकते, जहाँ वेद भी “नेति-नेति”कहकरमौनहोजातेहैं, वहाँ रींछ और वानर पहुँच जाते हैं। भगवान राम का निष्केवल प्रेम रींछ और वानरों पर है। केवल प्रेमी को अपने सद्गुरु या परमात्मा से केवल प्रेम चाहिए होता है। केवल प्रेम यह चाहता है कि मैं उसे याद करूँ तो वह भी मुझे याद करे। लेकिन निष्केवल प्रेम तो यह भी नहीं चाहता! आश्रित अपने सद्गुरु को पूर्ण रूप से मुक्त रखता है।
बापू ने भावपूर्ण स्वर में कहा, “मैं आपको ‘आनंदा यूनिवर्सिटी’ का यह पाठ्यपुस्तक सौंप रहा हूँ। इसका अभ्यास-अध्ययन करें, स्वाध्याय करें, और जब ज़रूरत पड़े तो इसे खोलकर पढ़ें।”
अंत में बापू ने कहा कि एकांत, निष्केवल प्रेम, साधु की कृपा और बुद्ध पुरुष का सान्निध्य, यही असली शिक्षा है।
जब हम अपने हृदय में भगवान की कृपामयी छवि स्थापित करते हैं, तो कृपा स्वतः ही आ जाती है। कथा के क्रम में प्रवेश करते हुए पूज्य बापू ने अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, लंका कांड और उत्तर कांड की बहुत ही संक्षिप्त चर्चा कर कथा में राम राज्य की स्थापना की। लव-कुश के जन्म के उल्लेख के साथ कथा का समापन करते हुए उन्होंने कहा कि राम का स्मरण करना, रामकथा का गायन करना और कथा सुनना ही कथा का मूल संदेश है।
नौ दिवसीय कथा अनुष्ठान का फल प्राचीन नालंदा के प्रथम कुलाधिपति, आचार्यों और विद्यार्थियों को समर्पित करते हुए बापू ने भावना व्यक्त की कि आधुनिक नालंदा भी पूरे विश्व में वही गरिमा और गौरव प्राप्त करे। इसके साथ ही पूज्य बापू ने “मानस नालंदा विश्व विद्यालय” शीर्षक से गाई गई राम कथा को विराम दिया।
बॉक्स आइटम
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बिहार राज्य के मुख्य सचिव श्री अमृतलाल मीना ने पूज्य बापू को बताया कि वैशाली नगर में भगवान बुद्ध की अस्थियों की स्थापना के लिए मंदिर का उद्घाटन लगभग तीन महीने में किया जाएगा। उस समय बापू कथा वाचन करने वैशाली आएंगे, जबकि बिहार राज्य के सभी सचिव कथा सुनने के लिए मौजूद रहेंगे। बापू ने इस पर प्रसन्नता व्यक्त की और कथा के विषय की भी घोषणा की।