सत्य का आश्रय लेकर आपके बारे में आप क्या है वह कहे।।
एक अवस्था आए फिर सब आरंभ से निवृत होना है।।
वेदांत में ग्यानियों को ज्ञान से भी मुक्त होना पड़ता है यह आखिरी अवस्था है।।
दादा का सामिप्य नहीं मिला सांनिध्य बहुत मिला।।
जीव के रूप में मेरे लिए दादा शिव है दादा की प्रस्थानत्रयि तीन आंखें हैं।।
देवभूमि ञुषिकेश के गंगा जी के तट पर प्रवाहित रामकथा के सातवें दिन पर आरंभ पर विष्णु दादा का लिखा एक मंत्र प्रस्तुत किया
नाहंमूर्खो न विद्वान न च जरठतनुनैवबालौ युवा वानैव स्त्री…..
विष्णु दादा के वचन है ब्रह्म विचार तीन प्रकार से हो सकते हैं:सीधा अविनाशी ब्रह्म के बारे में विचार शुरू करें।किसी आधार लेकर भागवत,रामायण,ग्रंथ का आधार लेकर और स्वयं ब्रह्म अपने विचार प्रस्तुत करें।।हम आधार लेकर विचार करें लेकिन आधार कितना टिकाऊ है? हम भी नशवंत है। जनक,लोमश,वशिष्ठ,विश्वामित्र सिधा विचार करते हैं। इसमें मुश्किल यह है कितना भी विचार करें नेतिनेति कहना पड़ेगा।इति-इति नहीं कह पाएंगे।। इसलिए विशेष सार्थक और फलदाई है स्वयं ब्रह्म ही अपना विचार प्रस्तुत करें।।
लंकाकांड में अंगद संधि का प्रस्ताव लेकर रावण के दरबार में गया। दोनों के बीच में बहुत संवाद हुए। अंगद ने कहा कि कहां-कहां पर तुम पराजित हुआ है। तब रावण ने कहा कि यह सब तेरे दृष्टि से है, लेकिन यह तेरी व्याख्या है।।अपने बारे में कोई दूसरा कहे वह कितना सत्य है वह कहना मुश्किल है।। जैसे गांधी जी ने ‘सत्य ना प्रयोगो’ बुक आत्मकथा लिखी और महादेव भाई देसाई ने डायरी लिखी वहां गांधी जी को अलग रूप से हम देख सकते हैं।।अपनी बात खुद ने बताई वह ज्यादा सत्य हो सकती है।।और हमारे बारे में कोई क्या कहें वह पूरा सत्य नहीं है। उसी को बोलने दो।। सत्य का आश्रय लेकर आपके बारे में आप क्या है वह कहे।। कृष्ण गीता जी में अर्जुन को 12वें अध्याय में आठ श्लोक कहते हैं।।उसे में धर्मामृत अष्टक कहता हूं।। जहां कृष्ण ब्रह्मविचार के बारे में कहते हैं भगवान कृष्ण खुद ब्रह्म है और गीता जी के अनेक भाष्य हुए हैं।।यह आठ श्लोक भी बापू ने पूरी संवादी चर्चा करते हुए समझाएं।।
बापू ने कहा मेरी दृष्टि में चार कैलाश है: एक कैलाश में मन से जाओगे तो अच्छे विचार आएंगे। बुद्धि से जाओगे तो शास्त्रों प्रज्ञा पुष्ट होगी। चित् से जाओगे तो चितवृति का निरोध होगा।और मूल कैलाश वहां समष्टि का अहंकार शिव आपको प्राप्त होगा।। यह साधक को दीक्षित करते हैं।।गीतासर्वारंभ शब्द लिखती है रामचरितमानस अनारंभ शब्द लिखता है एक अवस्था आए फिर सब आरंभ से निवृत होना है वेदांत में ग्यानियों को ज्ञान से भी मुक्त होना पड़ता है यह आखिरी अवस्था है।।
विष्णु दादा ने कहा कि मैं मुर्ख नहीं हूं। विद्वान नहीं हूं। मैं बुड्ढा भी नहीं बालक भी नहीं हूं। युवान भी नहीं हूं।।मैं स्त्री नहीं पुरुष नहीं नान्येतर भी नहीं हूं मैं इनमें से कुछ नहीं हूं।।देह के साथ आत्मा के साथ बुद्धि के साथ जो भी संबंध है वह सब खत्म हुए हैं। मैं भुना हुआ भुंझा हुआ- चना हूं।। इनमें अब कोई अंकुरण निकलने वाला नहीं।। लेकिन समाज को मैं फिर भी उपयोगी बनुंगा।।
बापू ने कहा कि दादा का सामिप्य नहीं मिला सानिध्य बहुत मिला।। संन्यास लेने का कोई कारण नहीं था लेकिन किसी जन्म की जागृत चेतन होगी मार्गी तो हमारा पंथ था दादा ने सोचा होगा गार्गी तक पहुंचे।। जीव के रूप में मेरे लिए दादा शिव है दादा की प्रस्थानत्रयि तीन आंखें हैं।। दाईं आंख खोले ब्रह्म सूत्र शुरू होते। बीच की आंख खुले तो भक्ति सूत्र बहते और बाइ आंख खोले तो भगवत गीता का करुणा गान आरंभ होता था।।
भगवान कृष्ण गीता जी के १२ वेंआध्याय में श्लोक १३ से २० में कहते है:
अद्वेष्टासर्वभूतानांमैत्रः करुण एव च ।
निर्ममोनिरहङ्कारःसमदुःखसुखः क्षमी ॥13॥
संतुष्टःसततं योगी यतात्मादृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तः स मेप्रियः॥14॥
(जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करते, सबके मित्र हैं, दयालु हैं, ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं क्योंकि वे स्वामित्व की भावना से अनासक्त और मिथ्या अहंकार से मुक्त रहते हैं, दुख और सुख में समभाव रहते हैं और सदैव क्षमावान होते हैं। वे सदा तृप्त रहते हैं, मेरी भक्ति में ढूंढ़ता से एकीकृत हो जाते हैं, वे आत्म संयमित होकर, दूंढ़-संकल्प के साथ अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करते हैं।)
यस्मान्नोद्विजतेलोकोलोकान्नोद्विजते च य:|
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ||15||
(जो किसी को उद्विग्न करने का कारण नहीं होते और न ही किसी के द्वारा व्यथित होते हैं। जो सुख-दुख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।)
अनपेक्षःशुचिर्दक्षउदासीनोगतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागीयोमद्भक्तः स मेप्रियः॥16॥
(वे जो सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन रहते हैं बाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध, निपुण, चिन्ता रहित, कष्ट रहित और सभी कार्यकलापों में स्वार्थ रहित रहते हैं, मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं।)
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागीभक्तिमान्यः स मेप्रियः॥17॥
(वे जो न तो लौकिक सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं तथा न ही किसी हानि के लिए शोक करते हैं एवं न ही लाभ की लालसा करते हैं, वे शुभ और अशुभ कर्मों का परित्याग करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं।)
समःशत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषुसमःसङ्गविवर्जितः॥18॥
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनीसन्तुष्टोयेनकेनचित्।
अनिकेतःस्थिरमतिर्भक्तिमान्मेप्रियोनरः॥19॥
(जो मित्रों और शत्रुओं के लिए एक समान है, मान और अपमान, शीत और ग्रीष्म, सुख तथा दुख, में समभाव रहते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं। जो सभी प्रकार के कुसंग से मुक्त रहते हैं जो अपनी प्रशंसा और निंदा को एक जैसा समझते हैं, जो सदैव मौन-चिन्तन में लीन रहते हैं, जो मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, घर-गृहस्थी में आसक्ति नहीं रखते, जिनकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थिर रहती है और जो मेरे प्रति भक्तिभाव से परिपूर्ण रहते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय है। श्रीकृष्ण भक्तों की दस अन्य विशेषताओं का वर्णन करते हैं-)
ये तुधामृतमिदंयथोक्तंपर्युपासते ।
श्रद्दधानामत्परमाभक्तास्तेऽतीवमेप्रियाः॥20॥
(वे जो यहाँ प्रकट किए गए इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं तथा निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मुझ पर समर्पित होते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं।)