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मुझे वहीं सबसे अधिक अच्छा लगता है, जहाँ कथा होती है: पूज्य मोरारी बापू

जहाँ मैं हूँ, वहाँ तक अपने श्रोताओं को ऊपर उठाना चाहता हूँ।

अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को प्रभु नाम में डुबो दो, अस्थियों की चिंता मत करो।

नालंदा: आज की रामकथा के आठवें चरण में प्रवेश करते हुए, पूज्य मोरारी बापू ने बिहार राज्य के मुख्य सचिव श्री अमृतलालजी मीणा के व्यासपीठ पर आगमन पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। बापू ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा, “रामचरितमानस के प्रति आपका प्रेम ही आपको यहाँ खींच लाया है।” बापू ने श्री हनुमान के चरणों में प्रार्थना की कि बिहार राज्य के लिए बनी योजनाएँ शीघ्र ही अपने मूल स्वरूप में पूर्ण हों।

बापू ने कहा, “मैंने अपनी जिह्वा रामकथा को समर्पित की है। मैं कभी किसी की प्रशंसा नहीं करता, पर जहाँ कुछ शुभ दिखे, वहाँ एक साधु के रूप में अपनी प्रसन्नता प्रकट करता हूँ।”

कथा के चिंतन में प्रवेश करते हुए बापू ने कहा कि मानस में चार प्रकार की मंथन प्रक्रियाएँ हैं, जिनसे कथा रूपी अमृत और राम नाम की मधुरता प्राप्त होती है।

उन्होंने कहा कि “श्रीरामजयराम, जय जय राम”मंत्रमें‘श्री’काअर्थमातासीताहै, पर हम इसे लक्ष्मीजी की ‘श्री’ कहते हैं। परंतु सीताजी की सुंदरता की तुलना लक्ष्मी से नहीं हो सकती। सीताजी सर्वश्रेष्ठ हैं। समुद्र मंथन से लक्ष्मी प्रकट हुई थीं, लेकिन उस मंथन के उपकरण शुद्ध नहीं थे। सबसे पहली बात तो यह कि मंथन किया गया सागर खारा है। मंथन मंदाराचल पर्वत से हुआ, जो कठोर है। मंथन की रस्सी नाग है और मंथन में शामिल दोनों पक्ष स्वार्थी हैं। ऐसे वातावरण से लक्ष्मीजी प्रकट हुईं। जबकि सीताजी के प्राकट्य हेतु सारे साधन शुद्ध होने चाहिए।

पूज्य मोरारी बापू ने कहा कि रामचरितमानस में सचिव को अत्यंत महत्व दिया गया है। मानस में कई स्थानों पर सचिव के महत्त्व का वर्णन हुआ है। बिहार में विक्रमशिला विद्यापीठ फिर से बनेगी, तब मैं कथा कहने आऊँगा। हमें विभिन्न विश्वविद्यालयों में जाकर “आनंदायूनिवर्सिटी”कीस्थापनाकरनीपड़ेगी।

मानस के एक संदर्भ में बापू ने कहा, “यदि सचिव, वैद्य और गुरु भय अथवा लोभवश सत्य न बोलें, तो हानि होती है। सचिव राजा से सत्य छिपाए तो राज्य नष्ट होता है, वैद्य मरीज़ से सत्य छिपाए तो मृत्यु होती है और धर्मगुरु सत्य न बोले तो धर्म का पतन होता है। भय और लोभ के कारण हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों का त्याग कर बैठते हैं।”

बापू ने बताया कि सरदार पटेल को सबसे पहले महान महाराजा कृष्णकुमारसिंहजी ने राज्य समर्पित किया था। निर्णय हुआ कि महाराजा अपनी सारी संपत्ति राष्ट्र को देंगे, पर महारानी दहेज के रूप में प्राप्त संपत्ति अपने पास रख सकती हैं। जब भावनगर के दीवान सर प्रभाशंकरपट्टणी से पूछा गया तो उन्होंने कहा, “जब पूरा हाथी दे दिया है, तो हौदा क्यों पकड़ रखना?”

इसीलिए रामायण में सचिव को सत्य और वैराग्य स्वरूप माना गया है। लंका युद्ध में जब लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं, तब श्रीराम लंका के वैद्य सुषेण को बुलाते हैं। श्रीराम को शत्रु देश के वैद्य पर और सुषेण को राम पर श्रद्धा है, यह आपसी प्रेम है।

बापू ने मानस के दूसरे गुरुमुख रहस्य को खोलते हुए कहा, “हनुमानजी जिन औषधियों के लिए गए, वे चार औषधियाँ — विषल्यकर्णी, संधिनी, सौवर्णकर्णी और संजीवनी, लंका के उपवनों में थीं, पर लंबे युद्ध के कारण वे समाप्त हो चुकी थीं। अतः हनुमानजी को भेजना पड़ा।”

जैसे ही हनुमान औषधि पर्वत में प्रविष्ट हुए, पर्वत की ज्योति बुझ गई और अंधकार छा गया। बापू ने कहा कि सभी पौधे जीवित होते हैं। उनके देवता होते हैं। वे बोलते हैं। ऐसा कोई पौधा नहीं जो उपयोगी नहीं है।

हनुमानजी औषधि के देवता से प्रार्थना की और औषधि ढूंढ कर ले जा सकते थे। पर उन्होंने पूरा पर्वत उठा लिया। उन्हें लगा कि राम या रावण की सेना में कोई भी घायल हो, तो उसका इलाज हो सके, इसलिए वे पूरा औषधालय ले आए।

बापू ने बताया कि विषल्यकर्णी दवा घायल अंग को सुन्न कर देती है, यह ऐनेस्थीसिया जैसी है। संधिनी औषधि टूटी हड्डियाँ जोड़ती है। सौवर्णकर्णी रक्त का फीका रंग पुनः लाल कर देती है, रक्तशुद्धि करती है। संजीवनी मूर्छित व्यक्ति को होश में लाती है।

मानस में गुरु वैद्य है। वह विषल्यकर्णी दवा से मन और बुद्धि की विकृति मिटाता है, जड़ता से टूटे सामाजिक संबंधों को संधिनी से जोड़ता है, विकारों से बदले रक्त को सौवर्णकर्णी से शुद्ध करता है, और राम मंत्र रूपी संजीवनी से चेतना को पुनः जीवित करता है। गुरु राम मंत्र को शिष्य के कान में घोलता है तब काल की मूर्छा भी टूट जाती है!

बापू ने कहा, “जब भी अवसर मिले, अपने पद, विद्या और अधिकार का उपयोग जनकल्याण के लिए करो। यही सनातन धर्म की शिक्षा है।”

महाराज दशरथ के सचिव सुमंतजी का उल्लेख करते हुए बापू ने कहा कि सचिव का अत्यंत महत्त्व है। सुमंत सचिव होने के साथ सारथी भी हैं।

चार प्रकार के समुद्र मंथन के बारे में बात करते हुए बापू ने कहा कि सौंदर्य के सागर मंथन से रूपामृत प्राप्त होता है। दूसरा, देव-दानवों के मंथन से सुधामृत प्राप्त होता है। तीसरा, वंदना प्रकरण में, ब्रह्माजी ने साधु को अमृत कहा है, जिसकी हर क्रिया अमृतमय हो। चंद्र के समान शीतल स्वभाव वाला साधु कल्पतरु होता है। जो शरणागत को अनुभव कराता है कि सद्गुरु कल्पतरु है।

साधु न धन से मथता है, न पद से डगमगाता है, न प्रतिष्ठा से डोलता है, वह केवल अपने ईष्ट देव के वियोग में, भगवन श्री कृष्ण के वियोग में, व्याकुल होता है। भरत जैसे साधु सागर हैं जिनके मंथन से प्रेमामृत निकलता है। चौथा, ब्रह्म भी एक समुद्र है। उसका मंथन ज्ञान रूपी मंदर पर्वत से होता है जिससे कथामृत प्राप्त होता है।

कथा क्रम में प्रवेश करते हुए बापू ने कहा कि राम और जानकी जहाँ रहते हैं, वह सुंदर सदन है। अर्थात् जहाँ भक्ति हो, वहीं भगवान वास करते हैं।

राम और लक्ष्मण की नगर यात्रा, पुष्पवाटिका में मर्यादित राम-सीता मिलन, सीताजी द्वारा भवानी स्तुति, भवानी का वरदान, धनुषभंग प्रसंग, राम-सीता विवाह, परशुराम का आगमन व राम को पहचानने के बाद उनका विदा होना, अयोध्या से दशरथजी का आगमन, चारों भाइयों का विवाह, कन्याविदा का करुण चित्रण और फिर अयोध्या की ओर प्रस्थान वाले अध्यायों के बारे में बात करके पूज्य मोरारी बापू ने अपनी वाणी को विराम दिया

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