मेरा मिशन किसी को सुधारना नहीं, सभी को स्वीकारना है।
पूज्य मोरारी बापू ने कहा कि परम अव्यवस्था का नाम ही परमात्मा है। आध्यात्मिक जगत अज्ञात है।
गुजरात, अहमदाबाद 31 मई 2025: “मानस नालंदा विश्वविद्यालय” की कथा की शुरुआत करते हुए बापू ने इस ध्यान की, अहिंसा की, परा-अपरा विद्या की तथा शून्यता और पूर्णता के मध्य सेतु रूप इस भूमि की समस्त चेतना को वंदन किया।
बापू की व्यासपीठ श्रोताओं को स्वतंत्रता देती है। अनेक श्रोता पत्र के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं और बापू समयानुसार उनकी जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।
आज आनंद विश्वविद्यालय को केंद्र में रखते हुए बापू ने कुलपति के छह गुणों का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि कुलपति का कार्य केवल प्रशासन चलाना नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी जिम्मेदारी है। यदि सही मूल्यांकन के बाद इस तथ्य को स्वीकारें, तो समाज को अवश्य लाभ होगा।
बापू ने कहा कि पहला गुण है उदारता। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय के कुलपति तक, हर स्तर पर उदारता होनी चाहिए, संकीर्णता नहीं। बुद्ध पुरुष बिना किसी कारण अपने आश्रितों पर कृपा की वर्षा करते हैं, बिना पात्रता देखे उदारता बरसाते हैं।
बापू ने कहा की दूसरा गुण है माधुर्य। मूल पुरुष में मिठास होनी चाहिए। उसका भाषण श्रोताओं के कानों में मधु घोल दे। बुद्ध पुरुष बोलें और श्रोता धन्य-धन्य हो जाएं!
तीसरा गुण है सौंदर्य। शारीरिक सौंदर्य ईश्वर से प्राप्त हुआ वरदान है। उसे शिकारी की नहीं, बल्कि पुजारी की दृष्टि से देखना चाहिए। परंतु, यहां केवल शारीरिक सुंदरता की बात नहीं है। अष्टावक्र सुंदर नहीं थे, लेकिन उनके परम ज्ञान के कारण वे सुंदर दिखते थे। साधना, स्मरण, भजन, ध्यान और योग की सुंदरता ही शाश्वत सौंदर्य है। ऐसे महापुरुषों में साधना की सुंदरता है, हरि-स्मरण की सुंदरता है, भजन की सुंदरता है। ध्यान और योग की भी अपनी सुंदरता है। यह शाश्वत सौंदर्य है।
चौथा गुण है गंभीरता। गंभीरता का अर्थ यह नहीं है कि आप मुंह चढ़ा कर बैठें। ऐसी गंभीरता तो अभिशाप है! अंतरतम में गंभीरता होनी चाहिए। जैसे कैलाशपति महादेव गंभीर हैं।
पाँचवाँ गुण है धैर्य। गंगा सती ने मेरु पर्वत और मेरु दंड के माध्यम से मन की स्थिरता की बात कही है। सुख-दुख, मान-अपमान, किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना ही सच्चा धैर्य है।
और छठा गुण है शौर्य। कुलपति, आचार्य या बुद्ध पुरुष में दृढ़ मनोबल और साहस होना चाहिए।
बापू ने कहा कि आज दुनिया में हर जगह उदारता की कमी है। हर व्यक्ति अपनी ज़िद पर अड़ा है। दुनिया में अशांति का एक कारण यह है कि कोई भी उदार नहीं है। कोई किसी को माफ नहीं करता। इसी कारण से दुनिया की समस्याएं बढ़ गई हैं। आज चाहे वह धार्मिक जगत हो, राजनीतिक क्षेत्र या सामाजिक जगत, लोग अपने वादों पर कायम नहीं रहते। जबकि आध्यात्मिक जगत में वचन का अत्यंत महत्व है। गुरु, शिष्य को एक ही बार कहते हैं, बार-बार नहीं। शिष्य को उनके वचन का पालन करना चाहिए।
बापू ने आगे कहा : “मेरामिशनकिसीकोसुधारनानहीं, सबको स्वीकारना है। स्वीकार करने के लिए विशाल हृदय और उदार दृष्टिकोण चाहिए। बुद्ध पुरुष की उदारता इतनी प्रचंड होती है कि शिष्य उसे सहन भी नहीं कर पाता। सद्गुरु जैसे अपने आप को शिष्य में विलीन कर देते हैं। उन्होंने कहा कि परमात्मा अत्यंत उदार हैं, इसलिए हमें भी उदार होना चाहिए।
युवाओं को संबोधित करते हुए बापू ने कहा, “यदि आप उदारता सीखना चाहते हैं, तो प्रेमचंद को पढ़ें। अच्छे ग्रंथों को पढ़ें। अपने मन की खिड़कियां खुली रखें ताकि अच्छे विचार भीतर प्रवेश कर सकें। प्रकृति के पांचों तत्व जड़ होते हुए भी अत्यंत उदार हैं।”
बापू ने कहा कि परमात्मा का अर्थ है परम अव्यवस्था। यहां कोई गणित नहीं चलता। क्या कब होगा, यह कोई नहीं जानता। आध्यात्मिक जगत अज्ञात है। यह जैसे भूरी मिट्टी के ढेर में हाथ डालना है।
उन्होंने कहा कि शास्त्र तभी आत्मसात होते हैं जब वे गुरुमुख से मिलते हैं। मौन का अर्थ है मुनि भाव में स्थित होना। ऐसे मौनी बुद्ध पुरुष आकाश के स्तंभ होते हैं। गंगा सती कहती हैं कि यदि सद्गुरु तारें तो ही पार हो सकते हैं, अन्यथा हज़ार बार डूबना पड़े।
परम तपस्वी दादा गुरु विष्णुदेवानंदगिरी महाराज ने कहा था – प्रेम आत्मा का धर्म है। हर व्यक्ति को एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति में आत्मा होती है।
कथा के क्रम में प्रवेश से पहले बापू ने राम जन्म के प्रसंग की खुशी में श्रोताओं से रास करवाया।
शिवजी, पार्वतीजी को रामकथा सुना रहे हैं। शिवजी, भूशुंडीजी के साथ बालराम के दर्शन हेतु ज्योतिष वेश में अयोध्या जाते हैं और माता कौशल्या के भवन में बालराम के दर्शन करते हैं। पार्वतीजी भी अपना स्वरूप बदलकर खिलौनेवाली बनकर भगवान के दर्शन के लिए अयोध्या जाती हैं। बापू ने कहा कि यदि किसी के पास सु-विद्या है, तो वह भगवान तक पहुँच सकता है। शिवजी ने ज्योतिष विद्या के आधार पर भगवान के दर्शन पाए।
बापू ने गुरु वशिष्ठजी द्वारा चारों भाइयों के नामकरण तथा प्रत्येक नाम का अर्थ भी समझाया। इसके पश्चात भगवान राम तीनों भाइयों के साथ गुरु गृह जाते हैं और अल्पकाल में समस्त विद्याएं प्राप्त कर लेते हैं। राम केवल स्वाध्याय नहीं करते, बल्कि सदाचरण भी करते हैं। प्रत्येक प्रातः वे माता-पिता, आचार्य और अतिथि को प्रणाम करते हैं।
बापू ने कहा कि श्रेष्ठ, वरिष्ठ और विशिष्ट लोगों को प्रणाम करने से आयुष्य, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है। ज्ञान से तेज, विवेक और विनय आते हैं तथा यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। शरीरबल, मनोबल और आत्मबल की भी वृद्धि होती है।
भगवान के यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात विश्वामित्रजी अयोध्या पधारते हैं।
वाल्मीकि ने जिसे “सिद्धाश्रम” कहा, उसे तुलसीदासजी “शुभाश्रम” कहते हैं। विश्वामित्रजी महाराज दशरथजी के पास आते हैं और राम-लक्ष्मण को अपने साथ “विश्व के मित्र” बनाने के लिए भेजने का निवेदन करते हैं। कथा के क्रम को यहां तक लाकर पूज्य बापू ने अपनी वाणी को विराम दिया