तथाकथित विद्वानों की बोली से परमात्मा दब गया है।।
साधु की बोली से परमात्मा निरावरण होता है।।
साधु के पास शब्द नहीं वचन होते हैं।।
शब्द से भी वचन का महत्व ज्यादा है।।
शब्द ब्रह्म है वचन परब्रह्म है।।
जब तक हम नियम को पकड़ के रखते हैं तब तक परमात्मा पकड़ में नहीं आएगा।
सभी नियम छूट जाए तब परमात्मा पकड़ में आता है।।
काम सर्जक है,लोभ संरक्षक है और क्रोध संहारक है।।
इलोरा गुफा छत्रपति संभाजी नगर से प्रवाहित रामकथा के दूसरे दिन आरंभ पर महाराष्ट्र के संतों, महंतों समाज सुधारकों को याद करते हुए सभी को प्रणाम करके बापू ने कहा लिए पहले गुफा से हम आगे बढ़े:
हिमगिरि गुहा एक अति पावनी।
बह समीप सुरसरि सुहावनि।।
नारद जी गुफा में समाधिष्ट हुए। वह हिमालय की गुफा,वह गुफा मन की गुफा है।।थोड़ा आज मन की गुफा में जाकर श्रवण करें।।क्रम भी यही है: मन, बुद्धि,चित्त और अहंकार।।कभी कोई गुफा में भी कथा की गई है वह स्मरण करते हुए बापू ने कहा प्रवर्षण पर्वत जहां भगवान राम और लक्ष्मण ने चातुर्मास किया था,दक्षिण भारत की गुफा के आगे हमने कथा की है।। लेकिन तलगाजरडा के एक कोने की गुफा से यह कथा मुझे मिली है।
यह प्रकरण मन का विलास है। नारद का मन तो निर्मल था इसलिए यहां इस गुफा में सहज समाधि लग गई।। यह गुफा मन की होने के कारण अगल-बगल में खतरे बहुत पैदा हुए।। भ्रमण गुफा ही मन की गुफा है। मन भंवरा है।कभी इधर कभी उधर स्थिर नहीं रहता।। निरंतर हमें भ्रमित करता है इसलिए कबीर गोरखनाथ और अन्य महापुरुषों ने यह भ्रमण गुफा के पद भी लिखे हैं।।
जितना संसार में मन लग रहे इतना ईश्वर में मन नहीं लगता। लोग आते हैं और पूछते हैं मन प्रभु में क्यों नहीं लगता? यह भ्रमर मन है।। श्रीमद् भागवत में पूरा भंवर गीत है।। मन दूष्टता करना ना छोड़े तो मन की निंदा ना करो।।डांटो भी नहीं, रोको भी नहीं। छोड़ दो।। यह सब की समस्या है। तो करें क्या? मन को रोको मत। मन इसलिए भ्रमित है क्योंकि मन की रुचि हमने नहीं जानी।। मन की रुचि क्या है? बापू ने कहा कि चार जगह पर मन की रुचि है:
एक रुचि है हमें सुख मिलना चाहिए।। दो- मेरा यह सुख कायम रहे।।तीन- सुख कटे भी नहीं और खूटे भी नहीं और चार-कभी भी छोटा सा दुख इसमें मिश्रित ना हो।। लेकिन संसार में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की सदा सुख मिले, सदा सुख रहे, सुख कभी कटे नहीं ऐसी कोई व्यवस्था नहीं।। तब मन की गुफा में जाकर सोचे सुख कहां है? सुख हरिनाम में राम में,परमात्मा में है।।परमात्मा में रस लेना सदा सुख है। मन की रुचि को परमात्मा की तरफ मोड़ दिया जाए तो मन का भटकाव कम होगा।।
बापू ने कहा कि तथाकथित विद्वानों की बोली से परमात्मा दब गया है। साधु की बोली से परमात्मा निरावरण होता है।।क्योंकि साधु के पास शब्द नहीं वचन होते हैं।। शब्द से भी वचन का महत्व ज्यादा है शब्द ब्रह्म है वचन परब्रह्म है।।जब तक हम नियम को पकड़ के रखते हैं तब तक परमात्मा पकड़ में नहीं आएगा। एक अवस्था के बाद नियम छोड़ना पड़ेगा। सभी नियम छूट जाए तब परमात्मा पकड़ में आता है।। तुकाराम के अभंगों को याद करते हुए वचन के बारे में बापू ने विस्तार से समझाया।।
बापू ने रस्किन का पुस्तक ‘अन टु धी लास्ट’ जो गांधीजी ने बताया और यह पूरे पुस्तक से गांधी जी ने तीन निष्कर्ष निकाले और अपने शब्दों में लिखें। यह पुस्तक केवल 32 पन्नों का है और युवाओं को पढ़ना चाहिए।। गांधी जी ने कहा: सब की भलाई में अपनी भलाई है।। सादगी और सहज जीवन ही जीवन है।। और नाई और वकील दोनों का स्वीकार करें।आखिरी आदमी तक पहुंचे।। यह पुस्तक का सरल निष्कर्ष गांधी जी ने निकाला है।।
बापू ने कहा कि मन भटक रहा है मतलब किसी को खोज रहा है। कथा वचन का मेला है। मन का योग्य आसन हरिनाम है।।
काम क्रोध और लोभ सब बुरे हैं लेकिन यह तीनों में क्रोध सबसे खतरनाक है।। काम सर्जक है,लोभ संरक्षक है और क्रोध संहारक है।। जब नारद मन की गुफा में आए तो आसपास प्रलोभन और काम का वैभव खड़ा हुआ।। काम कला मुनि को व्यापी नहीं। नारद को क्रोध नहीं आया। नारद ने काम को जीता। क्रोध को भी जीत लिया और नारद को कोई लोभ नहीं था।। लेकिन अहंकार आया और इसलिए अपनी प्रशंसा को लेकर कैलाश में शिव जी के पास गए।।शिवजी ने मना किया कि आपकी यह प्रशंसा विष्णु को नहीं सुनाना। लेकिन अहंकार इतना व्याप्त हो गया था कि नारद विष्णु के पास आए और काम को जीतने की सभी कथा विष्णु को सुनाइ।। और विष्णु ने अपने भक्त के परम हित के लिए माया से प्रेरित माया नगरी बनाई और वहां विश्व मोहिनी का स्वयंवर रचकर नारद को मोहित और भ्रमित किया।। और आखिर में नारद का भ्रम टूटा, अहंकार छूटा और विश्व मोहिनी के रूप में स्वयं भगवान ने अपनी माया का आवरण हटा दिया और नारद को सही पता लगा।। यह पूरा नारद वृतांत बापू ने विस्तार से कहकर आज की कथा को विराम दिया।।