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राम का भजन करते हुए निंदा और प्रशंसा से ऊपर उठो: पूज्य मोरारी बापू

साधु कभी किसी के पाप नहीं देखता।

वासना के चरण पकड़ने से दुर्गति होती है, उपासना के चरण पकड़ने से सद्गति होती है।

पतित, उपेक्षित और वंचितों का पुनःस्थापन ही उद्धार है।

नालंदा: “मानस नालंदा यूनिवर्सिटी” के सातवें दिन के संवाद की शुरुआत करते हुए पूज्य मोरारी बापू ने नव-निर्मित नालंदा यूनिवर्सिटी का दौरा कर प्रसन्नता जताई और केवल दो शब्दों में प्रतिक्रिया देते हुए कहा – “भली रचना।” बापू ने विद्यापीठ द्वारा व्यासपीठ के प्रति दर्शाए गए आदर के लिए संतोष व्यक्त किया।

बापू ने कहा कि इस यूनिवर्सिटी ने पंचमहाभूत के पांचों तत्वों का भरपूर लाभ लिया है। नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख वास्तुकार एक गुजराती हैं। इस विद्यापीठ का उद्घाटन भी माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किया गया था। बापू ने त्रिभुवन से होने के बावजूद, एक गुजराती के रूप में, नालंदा में इस पवित्र स्थान पर कथा करने का सहज आनंद प्रकट किया। उन्होंने कामना की कि नालंदा यूनिवर्सिटी पुनः अपनी गरिमा की ओर अग्रसर हो।

एक जिज्ञासा के समाधान में बापू ने कहा, “आलोचना में छुपे सत्य और प्रशंसा में छुपे असत्य को सत्संग से प्राप्त विवेक से ही समझा जा सकता है।”

“किसी भी विषय में जल्दबाजी न करें। यदि आप अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो आपको अत्यंत धैर्य रखना होगा। यदि किसी की कृपा से द्वार पलभर में खुल जाए, तो वह अलग बात है, अन्यथा, अध्यात्म में धैर्य परम आवश्यक है।”

“राम का भजन करते-करते निंदा और प्रशंसा से ऊपर उठो। मेरे श्रोताओं को निंदा और स्तुति को समान समझने का अभ्यास करना चाहिए या फिर इन दोनों से ऊपर उठ जाना चाहिए। यदि आप निंदा से प्रभावित होते हो, तो आप प्रशंसा से भी प्रभावित हो जाओगे।”

बापू ने कहा कि श्रोता-वक्ता, गुरु-शिष्य एक जोड़ी हैं – एक युगल। गुरु और शिष्य में द्वैत होना चाहिए। गुरु और शिष्य में अद्वैत संभव नहीं है।

उन्होनें कहा कि “राम” दो अक्षरों का नाम है – यह एक जोड़ी है, जिसका बड़ा महत्व है। “बापू” भी दो अक्षरों का शब्द है – इसका भी गौरव है। अध्यात्म में युगल का बड़ा महत्व है। “र” और “म” दोनों अक्षर जीव और जगत का पालन करते हैं। श्रोता-वक्ता ज्ञाननिधि हैं, यह जोड़ी मेरी और आपकी है!”

बापू ने कहा कि यदि यह युगल-भाव व्यवहार में आ जाए, तो दांपत्य जीवन भी सुंदर हो सकता है।

रामकथा के युद्ध प्रसंग में युगल का महात्म्य है। मेघनाद हनुमान या जामवंत से नहीं लड़ता। उसने रामानुज लक्ष्मण से ही युद्ध किया। उस समय युद्ध में भी ईमानदारी थी, नियम थे। बापू ने  आगे कहा कि रामायण के युद्ध में भी बुद्धत्व छिपा है।

“युद्ध की कथा सुंदर है, पर युद्ध स्वयं सुंदर नहीं। युद्ध भीषण है। तुलसीदास युद्ध-प्रेमी नहीं थे, न हिंसा के पक्षधर, फिर भी उन्होंने युद्ध का वर्णन किया है। ‘रामचरितमानस’ रामायण का संशोधित रूप है। यह सारे शास्त्रों के सार का निष्कर्ष है।”

वाल्मीकि रामायण को यदि गुरुमुख से सुना जाए, तभी उसका रहस्य समझ में आता है। अन्यथा नहीं।

बापू ने वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस का तुलनात्मक विहंगावलोकन प्रस्तुत किया।

उन्होनें कहा: “वाल्मीकिरामायणकेअनुसार, जब रावण सीता का अपहरण करने जाता है, तो माता सीता उसे रामकथा सुनाती हैं। रावण को निर्वाण प्राप्त हुआ, क्योंकि उसने मातृमुख से रामकथा सुनी थी।”

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, ब्रह्मा के आदेश से इन्द्र बल-अतिबल विद्या को खीर में मिलाकर सीता को खिलाने आते हैं, ताकि उन्हें भूख-प्यास न लगे। सीता माता इन्द्र से देव होने का प्रमाण मांगती हैं, तब वह देवताओं के लक्षणों का वर्णन करते हैं। एक, देवताओं के पैर पृथ्वी को नहीं छूते।  दूसरा, उनकी आंखें पलकें नहीं झपकातीं।

तीसरा, उनके वस्त्रों पर कभी धूल नहीं जमती – रजोगुण धूल है, वस्त्र वृत्ति है। जब रजोगुण देव वृत्ति में प्रवेश करता है, तब दैवत्व का नाश होता है। चौथा, देवताओं की माला कभी सूखती नहीं, और पांचवा, उनकी परछाईं नहीं पड़ती।

रामायण में राम और रावण के युद्ध में सभी की जोड़ियां बनती हैं, पर एक जोड़ी नहीं बनती। रावण के पास रथ था, रघुवीर पैदल थे। फिर रामायण में धर्मरथ का अद्भुत वर्णन है। रामकथाओं में रथ का महात्म्य दिखता है।

ब्रह्मा जी ने मेघनाद को “इन्द्रजीत” नाम दिया। फिर इन्द्रजीत अमरत्व का वरदान मांगता है। इन्द्रजीत वरदान मांगता है कि – “मुझे देवी के यज्ञ से रथ प्राप्त हो और जब तक मैं रथ पर हूं, कोई मुझे मार न सके।” ब्रह्मा अत्यंत ज्ञानी हैं। परमतत्त्व यही है कि वह एक खिड़की खुली रखता है, वरना बुद्धिजीवी उसे किसी न किसी रूप में बांध ही देते।

बापू ने कहा, “यदि थोड़े समय के लिए श्रेष्ठ जीवन जिया जा सके, तो वह दीर्घ जीवन से उत्तम है।”

श्रोताओं को संबोधित करते हुए बापू ने भावुक शब्दों में कहा: “मैं66 वर्षों से आपकी सेवा कर रहा हूं – आपसे कुछ भी लिए बिना। क्योंकि मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं। आत्मानुशासन में रहना आपका उत्तरदायित्व है – आपका कर्तव्य है। मेरे दुःख को समझो और अपने आचरण को सुधारो।”

रामायण की चिंतनधारा में प्रवेश करते हुए बापू ने कहा – बालकांड में प्रथा, अयोध्याकांड में व्यथा, अरण्यकांड में व्यवस्था है। बापू ने फिर स्पष्ट किया – “मैंकिसीकागुरुनहींहूं, मैं केवल त्रिभुवन दादा का शिष्य हूं।”

“आनंदा यूनिवर्सिटी”केपाठ्यक्रमकेविषयमेंबापूनेबतायाकिशास्त्रोंमेंमनकेअलग-अलगप्रकारवर्णितहैं।पहलामृतमन,  जिसमें कोई संवेदना नहीं। रामकथा मृत मन में संवेदना जाग्रत करती है। इसलिए तुलसीदासजी अपने मन को कथा सुनाते हैं। दूसरा है मुखुर मन, यानी दर्पण मन। यह हमें वैसे नहीं दिखाता जैसे हम हैं। यह भ्रमित करता है। तीसरा है मर्कट मन, अत्यंत चंचल मन। अधिक विचार के कारण नींद नहीं आती। मनोविकृति हमें सोने नहीं देती। नींद दयालु है, वह दया की देवी है, वह आराम देती है। अपने मन को उस स्थान से जोड़ें जहां उसे विश्राम मिलता है।

चौथा मीन मन, मछली जैसा चंचल मन। पर जल में इसकी चंचलता भी मधुर होती है। पांचवा मस्त मन। कथा में तल्लीन हो जाने पर मन मस्ती में डूब जाता है। छठा मद मस्त मन, हाथी जैसा अहंकारी मन। मन में मद उचित नहीं। सातवा महंत मन जो साधना में रमा हुआ है। आठवां मसक मन, मच्छर जैसा मन – कान में कचरा डालता है, निंदा करता है। नौवां मृग मन। हिरण जैसा मन – भागता है, फिर पीछे मुड़कर देखता है। हम भागते हैं लेकिन हमें वापस मुड़कर “सुदर्शन”करनाचाहिए।दसवाँहैमलिनमन, जो विकृतियों और दुर्गंध से भरा हुआ। ग्यारहवां म्लेच्छ मन, हिंसक, अशुद्ध मन।

कथा के क्रम को यहां तक लाकर पूज्य बापू ने अपनी वाणी को विराम दिया।

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